Saturday, 21 October 2017

अनूठी बोहनी

------ अनूठी बोहनी -----

साँझ होने को आई किन्तु आज एक पैसे की बोहनी तक नहीं हुई।
बांस एवं उसकी खपच्चियों से बने फर्मे के टंग्गन में गुब्बारे, बांसुरियाँ, और फिरकी, चश्मे आदि करीने से टाँग कर रामदीन रोज सबेरे घर से निकल पड़ता है।
गली, बाजार, चौराहे व घरों के सामने कभी बाँसुरी बजाते, कभी फिरकी घुमाते और कभी फुग्गों को हथेली से रगड़ कर आवाज निकालते ग्राहकों/ बच्चों का ध्यान अपनी ऒर आकर्षित करता है रामदीन ।
बच्चों के साथ छुट्टे पैसों की समस्या के हल के लिए वह अपनी  बाईं जेब में घर से निकलते समय ही कुछ चिल्लर रख लेता है। दाहिनी जेब आज की बिक्री के पैसों के लिए होती
खिन्न मन से रामदीन अँधेरा होने से पहले घर लौटते हुए रास्ते में एक पुलिया पर कुछ देर थकान मिटाने के लिए बैठकर बीड़ी पीने लगा। उसी समय सिर पर एक तसले में कुछ जलाऊ उपले और लकड़ी के टुकड़े रखे मजदुर सी दिखने वाली एक महिला एक हाथ से ऊँगली पकड़े एक बच्चे को लेकर उसी पुलिया पर सुस्ताने लगी।
गुब्बारों पर नज़र पड़ते ही वह बच्चा अपनी माँ से उन्हें दिलाने की जिद करने लगा। दो चार बार समझाने के बाद भी बालक मचलने लगा, तो उसके गाल पर एक चपत लगाते हुए उसे डांटने लगी  कि,
दिन भर मजूरी करने के बाद जरा सी गलती पर ठेकेदार ने आज पूरे दिन के पैसे हजम कर लिए और तुझे फुग्गों की पड़ी है।। बच्चा रोने लगता है।
पुलिया के एक कोने पर बैठे रामदीन का इन माँ-बेटे पर ध्यान जाना स्वाभाविक ही था।  वह उठा और रोते हुए बच्चे के पास गया । एक गुब्बारा, एक बांसुरी और एक फिरकी उसके हाथों में दे कर सर पर हाथ रख  उसे चुप कराया। फिर अपनी बाईं जेब में हाथ डालकर  उसमे से इन तीनो की कीमत के पैसे निकाल कर अपनी दाहिनी जेब में रख लिए।
अचानक हुई इस अनूठी और सुखद बोहनी से प्रसन्न मन मुस्कुराते हुए रामदीन घर की ओर चल दिया।

पड़ोसी के बिजली के बिल का सुख

*पड़ोसी के बिजली बिल का सुख*

ऑफिस से घर लौटे पति रामदीन के साथ शाम की चाय पर पत्नी ने सेंटर टेबल पर रखा बिल हाथ मे लेते हुए पूछा-
आपने इस माह का बिजली का ये बिल देखा क्या?
नहीं, - कितना आया है, रामदीन ने उत्सुक हो जानना चाहा।
लीजिए - आप ही देख लीजिए, पत्नी ने बिल थमाते हुए कहा-
आठ हजार....
एकदम से चोंकते हुए , आठ हज्जार!... इसीलिए मैं तुम्हें टोकता रहता हूँ कि, कंटीन्यू ए. सी. मत चलाया करो, पर तुम हो कि....
अब दो -दो ए. सी.घर में है तो इतना बिल तो आएगा ही न,
पत्नी ने बात काटते हुए कहा।
क्या मतलब है तुम्हारा? रामदीन ने झुंझलाते हुए पत्नी की ओर देखा।
बगल वाली सेंगर भाभी के यहाँ भी दो ही ए. सी. है, उनका बिल कितना आया है, पता है आपको ? ग्यारह हजार रुपए....।
फिर से चोंकते हुए ग्यारह हजार....…..सचमुच में ग्यारह हजार ?
ठंडी स्वांस भरते हुए - वैसे इस दृष्टि से तो फिर अपना आठ हजार का बिल ठीक ही आया है। बड़े ही संतुष्ट भाव से रामदीन ने कहा।
वही तो मैं भी कह रही हूँ , पत्नी ने भी पति की बात को सहलाया।
पड़ोसी के बड़े बिल के चलते खुद के कम बड़े बिल की चिंता से मुक्त होते हुए खुशी-खुशी दोनों अब चाय की मीठी चुस्कियां लेने लगे।
सुरेश तन्मय, जबलपुर
9893266014

नेता कभी सच नहीं बोलता

---नेता कभी सच नहीं बोलता---

एक शराब की दुकान का उदघाटन करने पहुंचे नेता जी परंपरागत रूप से अपने स्वभावानुसार अवसर के अनुकूल भाषण दे रहे थे,-----
"नमस्कार साथियों;! यह बहुत खुशी का अवसर है कि, मुझे इस दारू की दुकान के शुभारंभ का सौभाग्य मिला है, आयोजकों को बधाई व धन्यवाद के साथ शराब से होने वाली समाज में प्रचलित भ्रांतियों को दूर करते हुए आज मैं आप लोगों को शराब के विषय मे कुछ महत्वपूर्ण व उपयोगी बातें बताना चाहता हूँ"----
शराब एक शांतिप्रिय शीतल पेय है; इसलिए  बड़े शांत चित्त हो, इत्मिनान से इसे पीना चाहिए। यदि इसे जल्दी-जल्दी गटकेंगे तो यह तो क्या कोई भी चीज हानि ही पहुंचाएगी।
जैसे चाय के साथ स्नेक्स लेते हैं वैसे ही इसके साथ भी कुछ खाद्य आयटम जिन्हें चखना भी कहते हैं लेते रहना चाहिए।
मित्रों इस प्रकार यदि आप इसका सेवन करेंगे तो फिर शराब से फायदे ही फायदे हैं ,  मुझे कुछ और जगह भी उदघाटन करने जाना है, इसलिए मैं संक्षेप में आपको कुछ बातें बताता हूँ,
-- शराब पीने के बाद व्यक्ति संकोच, भय,तथा हीन भावना की संकीर्ण सोच से मुक्त हो जाता है।
-- शराब के सेवन से व्यक्ति सत्य के बहुत ही नज़दीक पहुंच जाता है।
-- पीते- पीते  वह भीतर-बाहर से एक सा हो कर कभी-कभी अर्ध समाधि की अवस्था को प्राप्त कर दीन-दुनियां से बेखबर हो आनंद सागर में गोते लगाने लगता है।
शराब लोगों को जोड़ने का काम करती है।
किसी के साथ हमप्याला होने के बाद फिर उसे आप जीवन भर भूल नहीं सकते हो।
परेशान, दुखी, व चोट खाये हुए चिन्ताग्रस्त व्यक्ति को तनाव मुक्त कर जो राहत शराब देती है, वह संसार की कोई भी अन्य वस्तु उसे नहीं दे सकती।
साथियों ! -- आप लोग यह तो जानते ही होंगे कि, मदिरा पर बड़े-बड़े महाकवियों ने कलम चला कर काव्य ग्रंथ लिखे हैं। यदि यह लाभकारी नहीं होती तो कवि, लेखक व हमारे जैसे राजनेता इस पर अपना दिमाग क्यों खोटी करते?
नेताजी और भी कुछ बखान करना चाह रहे थे तभी उनके निजी सचिव ने उनके कान में कुछ कहा।
सचिव की बात सुन, तुरंत पलटी मारते हुए बोले ,---
"अच्छा साथियों, --- एक बात बताओ;  क्या आप लोग नेताओं की बातों पर भरोसा करते हो ? फिर स्वयं ही बोले ---नहीं करते हो न भरोसा ?"
"मैं भी यही कह रहा हूँ कि, कभी भी किसी भी नेता की कोई भी बात पर विश्वास नहीं नहीं करना, आज की शराब पर कही हुई मेरी बातों पर भी नहीं।
मैंने भी आज जो बातें आपसे कही है, वे सच नहीं है। शराब आखिर शराब है, इसने अनेकों घर बर्बाद कर दिए हैं। इस मति भ्रामक मदिरा पर मैं भी आपके मनोरंजन के लिए ही ये सब बातें  कर रहा था"।
आज मैं आप लोगों को एक राज की बात बात रहा हूँ यह कि, "नेता कभी भी सच नहीं बोलता"
ये कह कर जब नेताजी की नज़र आयोजकों पर पड़ी तो देखा कि, वे सब गुस्से से भरे उन्हें घूर रहे हैं, स्थिति भांप कर नेताजी ने फिर से पलटी मारी,----
तो मित्रों--- जीवन में किसी के कहने -सुनने पर कभी भी अंध भक्तिवश विश्वास नहीं करना ।मेरी एक बात गांठ बांध लो,  किसी भी वस्तु की अच्छाई-बुराई जानने के लिए पहले उस चीज को अपने अनुभव में लो, पहले उसे खुद इस्तेमाल करो, तभी  तुम उसके बारे में सही-गलत जान सकोगे। क्षेत्र में यह दुकान खुल ही गई है, इससे अब जरूरतमंद जनता को दूर-दूर भटकना नहीं पड़ेगा। मैं चाहता हूँ सब को इसका अधिक से अधिक लाभ मिले।
धन्यवाद, जय हिंद




"रात का चौकिदार"

दिसंबर-जनवरी की कंपकंपाती ठंड हो, झमाझम बरसती वर्षा या उमस से भरी गर्म रातें, हर मौसम में रात बारह बजे के बाद चौकिदार नामक यह निरीह प्राणी सड़क पर लाठी ठोकते, सीटी बजाते हमें सचेत करते हुए, कॉलोनी में रात भर चक्कर लगाते रोज सुनाई पड़ता है।
हर महीने की तरह पहली तारीख को हल्के से गेट बजाकर खड़ा हो जाता है - "साब जी, पैसे"....
कितने पैसे? वह पूछता है उससे।
साब जी- 'एक रुपए रोज के हिसाब से महीने के तीस रुपए'  आपको तो मालूम ही है।
अच्छा,एक बात बताओ बहादुर,- 'कितने घरों से पैसे मिल जाते हैं, तुम्हें महीने में?
"साब जी, यह पक्का नहीं है, कभी साठ घर से, कभी पचास  से
तीज-त्योहार पर बाकी घरों से भी कभी कुछ मिल जाता है। इतने में गुजारा हो जाता है हमारा"।
पर कॉलोनी में तो सौ-सवा सौ से भी अधिक घर हैं, फिर इतने कम ...क्यों?
"साब जी, कुछ लोग पैसे नहीं देते हैं, कहते हैं- हमें ज़रूरत नहीं है तुम्हारी।
"तो फिर तुम उनके घर के सामने सीटी बजाकर चौकसी रखते हो कि, नहीं"? उसने पूछा।
"हाँ, साब जी, उनकी चौकसी रखना तो और जरूरी हो जाता है। भगवान नहीं करे, यदि उनके घर चोरी-वोरी हो जाये तो पुलिस तो फिर हमसे ही पूछेगी ना?" और वे भी हम पर झूठा आरोप लगा सकते हैं कि, पैसे नहीं देते इसलिए चौकीदार ने ही चोरी करवा दी।"
"ऐसा पहले मेरे साथ हो भी चुका है, साब जी।"
"अच्छा ये बताओ बहादुर ,- रात में अकेले घूमते तुम्हें डर नहीं लगता ?
"डर क्यों नही लगता  साब जी, दुनियाँ में जितने जिन्दे जीव हैं, सब को किसी न किसी से डर लगता है। बड़े से बड़े आदमी को डर लगता है तो फिर हम तो बहुत छोटे आदमी हैं।"
"कई बार  नशे-पत्ते वाले और गुंडे-बदमाशों से मारपीट भी हो जाती है। शरीफ दिखने वाले लोगों सेझिड़कियाँ, दुत्कार और धौंस मिलना तो रोज की बात है।"
अच्छा बहादुर, सोते कब हो तुम? प्रश्न करता है वह।
साब जी, रोज सुबह आठ- नौ बजे एक बार और कॉलोनी में  चक्कर लगाकर तसल्ली कर लेता हूँ कि, सब ठीक है  न, फिर कल के नींद पूरी करने और आज रात में फिर जागने के लिए आराम से अपनी नींद पूरी करता हूँ।
"अच्छा साब जी, - अब आप पैसे दे दें तो मैं अगले घर जाऊं"......
"अरे भाई, अभी तुमने ही कहा कि, जो पैसे नही देते उनका ध्यान तुम्हें ज्यादा रखना पड़ता है। तो अब से मेरे घर की चौकसी भी बिना पैसे के करनी होगी, समझे?"
"जैसी आपकी इच्छा साब जी" और चौकिदार अगले घर की ओर बढ़ गया।
सुरेश कुशवाहा'तन्मय'

----- मानसिकता -----

दीपावली से दो दिन पहले खरीदारी के लिए वो सबसे पहले पटाखा बाजार पहुंचा। अपने एक परिचित की दुकान से चौगुनी कीमत पर एक हजार के पटाखे खरीदे। फिर वह शॉपिंग सेंटर पहुंचा, यहां मिठाई की सबसे बड़ी दुकान पर जाकर डिब्बे सहित तौली गई हजार रूपये की मिठाई झोले में डाली। इसके बाद पूजा प्रसाद के लिए लाई-बताशे, फल-फूल और रंगोली आदि खरीदकर शरीर में आई थकान मिटाने के लिए पास के कॉफी हाउस में चला गया। कुछ देर बाद कॉफी के चालीस रूपये के साथ अलग से बैरे की टीप के दस रूपये प्लेट में रखते हुए बाहर आया और मिट्टी के दीयों की दुकान की ओर बढ़ गया।

“ क्या भाव से दे रहे हो यह दीये ? ”

“ आईये बाबूजी, ले लीजिये, दस रूपये के छह दे रहे हैं ”

“ अरे!  इतने महंगे दीये, जरा ढंग से लगाओ, मिट्टी के दीयों की इतनी कीमत ? ”

“ बाबूजी, बिल्कुल वाजिब दाम में दे रहे हैं। देखो तो, शहर के विस्तार के साथ इनको बनाने की मिट्टी भी आसपास मुश्किल से मिल पाती है। फिर इन्हें बनाने सुखाने में कितनी झंझट है। वैसे भी मोमबत्तियों और बिजली की लड़ियों के चलते आप जैसे अब कम ही लोग दीये खरीदते हैं। ”

“ अच्छा ऐसा करो, दस रूपये के आठ लगा लो ”, दुकानदार कुछ जवाब दे पाता इससे पहले ही वह पास की दुकान पर चला गया। वहां भी बात नहीं बनी। आखिर तीन चार जगह घूमने के बाद एक दुकान पर मन मुताबिक भाव तय कर वह अपने हाथ से छांट-छांट कर दीये रखने लगा।

“ ये दीये छोटे बड़े क्यों हैं? एक साइज में होना चाहिए सारे दीये ”

“ बाबूजी, ये दीये हम हाथों से बनाते हैं, इनके कोई सांचे नहीं होते इसलिए.... ”

घर जाकर पत्नी के हाथ में सामान का झोला थमाते हुए वह कह रहा था – “ ये महंगाई पता नहीं कहा जा कर दम लेगी। अब देखों ना, मिट्टी के दीयों के भाव भी आसमान छूने लगे हैं। ”

NIMARI KAVITA"SURESH KUSHWAHA TANMAY":

* एक ट्रक मुरुम* (लघुकथा)

एक-आध बिस्किट का पैकेट हो तो निकाल दो बेटी ! सामने काम कर रही उन मजदूर महिलाओं को देने का मन हो रहा है-------।
कोई जवाब नहीं आया बहु की ओर से।
खिन्न मन रामदीन बाहर हाल में आकर बैठ गया, जहाँ बेटा लैपटॉप पर व्यस्त था।
सामने बन रहे मकान में सुबह से काम में जुटी तीन महिला मजूर सांझ तक की दैनिक मेहनत के बाद अभी-अभी आई एक ट्रक मुरुम मिट्टी नींव भराई में डालने के पैसे ठेकेदार से तय कर तगारियों से भीतर डालने में प्राणप्रण से जुटी थी।
अक्टूबर का अंतिम सप्ताह, एक स्वेटर की गुलाबी ठंड, ऐसे में भी वे तीनों वृद्ध महिलाएं अपने बदन से बहते पसीने में खुशियों कुछ सुखद बूँदों की आस में पूरे तालमेल के साथ रिदम में कदमताल कर रही थी।
"युद्ध स्तर पर जुटी इन तीनों की कष्टप्रद मेहनत को देख व्यथित रामदीन के मन में कारुणिक उथल-पुथल मची है"।
"दीवाली के मात्र तीन दिन शेष हैं, रात के साढ़े नौ बज रहे हैं, क्या, इन्हें त्यौहार की तैयारियां नहीं करनी है?, अब तो इन्हें भूख भी लगी होगी, घर जा कर भी इन्हें कौन सा पका-पकाया मिल ही जायेगा, अभी तो काफी मुरुम फेंकना बाकी है, फिर इन्हें कल भी तो सुबह जल्दी आने का ठेकेदार कह गया है"।
"ऐसे में पानी आधार कुछ खाने को दे सकूँ तो कुछ तो राहत मिलेगी इन्हें "।
"पर बहू ने तो मेरी बात पर ध्यान ही नहीं दिया", फिर से अन्धड़ विचारों का, उद्विग्न रामदीन के अंदर,। "क्या घर में अब मेरी स्थिति इतनी दयनीय हो गई है कि, किसी जरुरतमंद को अपनी मर्जी से न सही पूछकर भी कुछ नहीं कर सकूं"।
इसी बीच पापा जी, खाना खा लीजिए, बहू ने भोजन की थाली सामने रख दी। बेमन से पहली बार का परोसा खतम कर हाथ धोते हुए रामदीन बेटे से मुखातिब हुआ---------
बेटे,---एक-दो पैकेट बिस्किट के घर में हो तो सामने सुबह से काम कर रही इन मज़दूरों को दे दूं ।
बिस्किट क्यों देना है इन्हें------? बेटे ने प्रतिप्रश्न किया।
बस ऐसे ही मन में आया मेरे, तुम लोगों की इच्छा नहीं है तो रहने दो।
नहीं, मैं मना नहीं कर रहा हूँ, पापाजी, बस वैसे ही कि, क्यों देना है ,आज ---
रामदीन बेटे को कुछ कहने जा ही रहा था कि, इसी बीच बहू तीन-चार पैकेट रामदीन को देते हुए बोली--ये लीजिए पापाजी, किसी और उलझन की वजह से उस समय आपकी बात समझ नहीं पाई थी, क्षमा करेंगे।
वे तीनों महिलाएं बिस्किट खाने के बाद खुश हो पुनः अपने काम में जुट गई थी और रामदीन संतुष्ट भाव लिए अपने शयन कक्ष की की ओर .........।
सुरेश तन्मय
226, माँ नर्मदे नगर, बिलहरी
मंडला रोड़, जबलपुर,
म.प्र.- 482020
मोबा.09893266014