Saturday, 21 October 2017

"रात का चौकिदार"

दिसंबर-जनवरी की कंपकंपाती ठंड हो, झमाझम बरसती वर्षा या उमस से भरी गर्म रातें, हर मौसम में रात बारह बजे के बाद चौकिदार नामक यह निरीह प्राणी सड़क पर लाठी ठोकते, सीटी बजाते हमें सचेत करते हुए, कॉलोनी में रात भर चक्कर लगाते रोज सुनाई पड़ता है।
हर महीने की तरह पहली तारीख को हल्के से गेट बजाकर खड़ा हो जाता है - "साब जी, पैसे"....
कितने पैसे? वह पूछता है उससे।
साब जी- 'एक रुपए रोज के हिसाब से महीने के तीस रुपए'  आपको तो मालूम ही है।
अच्छा,एक बात बताओ बहादुर,- 'कितने घरों से पैसे मिल जाते हैं, तुम्हें महीने में?
"साब जी, यह पक्का नहीं है, कभी साठ घर से, कभी पचास  से
तीज-त्योहार पर बाकी घरों से भी कभी कुछ मिल जाता है। इतने में गुजारा हो जाता है हमारा"।
पर कॉलोनी में तो सौ-सवा सौ से भी अधिक घर हैं, फिर इतने कम ...क्यों?
"साब जी, कुछ लोग पैसे नहीं देते हैं, कहते हैं- हमें ज़रूरत नहीं है तुम्हारी।
"तो फिर तुम उनके घर के सामने सीटी बजाकर चौकसी रखते हो कि, नहीं"? उसने पूछा।
"हाँ, साब जी, उनकी चौकसी रखना तो और जरूरी हो जाता है। भगवान नहीं करे, यदि उनके घर चोरी-वोरी हो जाये तो पुलिस तो फिर हमसे ही पूछेगी ना?" और वे भी हम पर झूठा आरोप लगा सकते हैं कि, पैसे नहीं देते इसलिए चौकीदार ने ही चोरी करवा दी।"
"ऐसा पहले मेरे साथ हो भी चुका है, साब जी।"
"अच्छा ये बताओ बहादुर ,- रात में अकेले घूमते तुम्हें डर नहीं लगता ?
"डर क्यों नही लगता  साब जी, दुनियाँ में जितने जिन्दे जीव हैं, सब को किसी न किसी से डर लगता है। बड़े से बड़े आदमी को डर लगता है तो फिर हम तो बहुत छोटे आदमी हैं।"
"कई बार  नशे-पत्ते वाले और गुंडे-बदमाशों से मारपीट भी हो जाती है। शरीफ दिखने वाले लोगों सेझिड़कियाँ, दुत्कार और धौंस मिलना तो रोज की बात है।"
अच्छा बहादुर, सोते कब हो तुम? प्रश्न करता है वह।
साब जी, रोज सुबह आठ- नौ बजे एक बार और कॉलोनी में  चक्कर लगाकर तसल्ली कर लेता हूँ कि, सब ठीक है  न, फिर कल के नींद पूरी करने और आज रात में फिर जागने के लिए आराम से अपनी नींद पूरी करता हूँ।
"अच्छा साब जी, - अब आप पैसे दे दें तो मैं अगले घर जाऊं"......
"अरे भाई, अभी तुमने ही कहा कि, जो पैसे नही देते उनका ध्यान तुम्हें ज्यादा रखना पड़ता है। तो अब से मेरे घर की चौकसी भी बिना पैसे के करनी होगी, समझे?"
"जैसी आपकी इच्छा साब जी" और चौकिदार अगले घर की ओर बढ़ गया।
सुरेश कुशवाहा'तन्मय'

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