Saturday 21 October 2017

----- मानसिकता -----

दीपावली से दो दिन पहले खरीदारी के लिए वो सबसे पहले पटाखा बाजार पहुंचा। अपने एक परिचित की दुकान से चौगुनी कीमत पर एक हजार के पटाखे खरीदे। फिर वह शॉपिंग सेंटर पहुंचा, यहां मिठाई की सबसे बड़ी दुकान पर जाकर डिब्बे सहित तौली गई हजार रूपये की मिठाई झोले में डाली। इसके बाद पूजा प्रसाद के लिए लाई-बताशे, फल-फूल और रंगोली आदि खरीदकर शरीर में आई थकान मिटाने के लिए पास के कॉफी हाउस में चला गया। कुछ देर बाद कॉफी के चालीस रूपये के साथ अलग से बैरे की टीप के दस रूपये प्लेट में रखते हुए बाहर आया और मिट्टी के दीयों की दुकान की ओर बढ़ गया।

“ क्या भाव से दे रहे हो यह दीये ? ”

“ आईये बाबूजी, ले लीजिये, दस रूपये के छह दे रहे हैं ”

“ अरे!  इतने महंगे दीये, जरा ढंग से लगाओ, मिट्टी के दीयों की इतनी कीमत ? ”

“ बाबूजी, बिल्कुल वाजिब दाम में दे रहे हैं। देखो तो, शहर के विस्तार के साथ इनको बनाने की मिट्टी भी आसपास मुश्किल से मिल पाती है। फिर इन्हें बनाने सुखाने में कितनी झंझट है। वैसे भी मोमबत्तियों और बिजली की लड़ियों के चलते आप जैसे अब कम ही लोग दीये खरीदते हैं। ”

“ अच्छा ऐसा करो, दस रूपये के आठ लगा लो ”, दुकानदार कुछ जवाब दे पाता इससे पहले ही वह पास की दुकान पर चला गया। वहां भी बात नहीं बनी। आखिर तीन चार जगह घूमने के बाद एक दुकान पर मन मुताबिक भाव तय कर वह अपने हाथ से छांट-छांट कर दीये रखने लगा।

“ ये दीये छोटे बड़े क्यों हैं? एक साइज में होना चाहिए सारे दीये ”

“ बाबूजी, ये दीये हम हाथों से बनाते हैं, इनके कोई सांचे नहीं होते इसलिए.... ”

घर जाकर पत्नी के हाथ में सामान का झोला थमाते हुए वह कह रहा था – “ ये महंगाई पता नहीं कहा जा कर दम लेगी। अब देखों ना, मिट्टी के दीयों के भाव भी आसमान छूने लगे हैं। ”

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