Wednesday, 22 September 2010

इसीलिये ना कह पाता हूं...

अक्सर बातें करता रहता हूं मैं सपनों से
इसीलिये ना कह पाता हूं, मन की अपनों से

घर में आग लगी भी तब, जब पनघट था सूखा
पनियाला बादल सपनीला, बूंद बूंद चूका
अंधियारों को चीर-चीर, मन व्यथित भटकनों से...

लहरें गिन पाना है मुश्किल, सागर की जैसे
बिना रोग के रोगी का, उपचार करें कैसे
सड़े घाव अब छिपा ना पाये, तन के वसनों से...

ममता ने अपनी आंखों पर बांधी है पट्टी
खुली आंख अपनी है, जिसमें धुंधुवाती भट्टी
ह्रदय शून्य समझे कैसे, नीतिगत वचनों से...

है रमणीय उद्यान, पुष्प भी है प्यारे-प्यारे
माली ने जीवन अमृत, सब इनपर न्योछारे
फिर भी कहीं उदास, सहमते दूर बचपनों से
इसीलिये ना कह पाता हूं, मन की अपनों से.
-----------------------------

No comments:

Post a Comment