तुमने अपना दर्द सुनाया, मेरा नहीं सुना
इसी बात से व्यथा हमारी, हुई अनेक गुना
खुशबू ने फूलो की करी शिकायत, कांटो से
और चांदनी ने चंदा की, काली रातों से
इन्हीं असंगत शिकवों से, मौसम है जला भुना...
आमों के बौरों से तुम, अपने में बौराये
किंतु फलों के स्वाद, सदा खट्टे हमने पाये
मृगमरीचिकाओं में तन, रुई सा गया धुना...
पूजा के मुरझाये फूलों से रखकर अनबन
कलश शिखर मंदिर के रहे चढ़ाते आजीवन
फांस लिया प्रभू को तुमने, यह कैसा जाल बुना...
पीड़ाओं के घाव छिपाये, अपने अंतर में
बाती बनकर जले निरंतर, हम अपने घर में
दोष किसे क्यों दें, जब यह पथ हमने स्वयं चुना
इसी बात से व्यथा हमारी हुई अनेक गुना....
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